Biography of Ramdhari Singh Dinkar in hindi
रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय हिंदी में ( Biography of Ramdhari Singh Dinkar in Hindi )
रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय हिंदी में ( Raamadhaaree Singh Dinakar ka Jeevan Parichay in Hindi )
रामधारीसिंह ' दिनकर '(ramdhari singh dinkar का जन्म सन् 1974 ई ० में बिहार के मुंगेर जिले के अन्तर्गत सिमरिया - घाट नामक ग्राम में हुआ था । इन्होंने मोकामा - घाट से मैट्रिक तथा ' पटना विश्वविद्यालय से बी 0 ए 0 ( ऑनर्स ) किया । बाल्यावस्था में ही इन्होंने अपनी साहित्य - सृजन की प्रतिभा का परिचय दे दिया था । जब ये मिडिल कक्षा में पढ़ते थे , तभी इन्होंने ' वीरबाला ' नामक काव्य लिख लिया था । मैट्रिक में पढ़ते समय ही इनका ' प्राणभंग ' काव्य प्रकाशित हो गया था । सन् 1928-29 ई ० में इन्होंने विधिवत् साहित्य - सृजन के क्षेत्र में पदार्पण किया । बी ० ए ० ( ऑनर्स ) करने के बाद दिनकरजी एक वर्ष तक मोकामा - घाट के हाईस्कूल में प्रधानाचार्य रहे । सन् 1934 ई ० में ये सरकारी नौकरी में आए तथा सन् 1934 ई ० में ही ब्रिटिश सरकार के युद्ध - प्रचार विभाग में उपनिदेशक नियुक्त किए गए । कुछ समय बाद ये ' मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी - विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए । सन् 1952 ई ० में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया ,रामधारी सिंह दिनकर हिंदी में, जहाँ ये सन् 1962 ई ० तक रहे । सन् 1963 ई ० में ये ' भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए । दिनकरजी ने भारत सरकार की हिन्दी - समिति के सलाहकार और आकाशवाणी के निदेशक के रूप में भी कार्य किया । दिनकरजी की साहित्यिक प्रतिभा को सम्मान देने हेतु भारत के राष्ट्रपति ने सन् 1959 ई ० में इनको ' पद्म - भूषण ' की उपाधि से अलंकृत किया । इन्हें ' साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला । एक लाख रुपये के ' ज्ञानपीठ पुरस्कार ' से भी इनको पुरस्कृत किया गया । हिन्दी का यह महान् साहित्यकार सन् 1974 ई ० में इस असार संसार से विदा हो गया । रामधारीसिंह ' दिनकर ' ने एक कवि के रूप में अपेक्षाकृत अधिक ख्याति प्राप्त की , परन्तु फिर भी इनका गद्य की विभिन्न विधाओं पर समान अधिकार था । गद्य के क्षेत्र में भी इन्होंने अपना अविस्मरणीय योगदान दिया । एक श्रेष्ठ निबन्धकार , आलोचक एवं विचारक के रूप में ये हिन्दी - साहित्य - जगत् में विख्यात हैं । इनका अध्ययन अत्यन्त गहन एवं व्यापक था । साहित्य , दर्शन , राजनीति और इतिहास में इनकी विशेष रुचि थी । दिनकरजी की विभिन्न रचनाओं में इन विषयों से सम्बन्धित इनका गहन चिन्तन अभिव्यंजित हुआ है । गद्य के क्षेत्र में इन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित प्रचुर साहित्य की रचना की । इन्हें अपने देश एवं संस्कृति से प्रबल अनुराग था । संस्कृति के चार अध्याय एवं भारतीय संस्कृति की एकता इनकी राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ हैं । आलोचना सम्बन्धी साहित्य में भी दिनकरजी ने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है । इनके आलोचनात्मक ग्रन्थों में भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा - सिद्धान्तों का सुन्दर ढंग से विवेचन हुआ है । एक काव्यकार के रूप में ये भारतीय साहित्य के इतिहास में सदैव के लिष्ट असर हो गए हैं । राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित हृदयस्पर्शी कविताएँ लिखने के कारण ये राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए । भारत के अतीतकालीन गौरव और भारतीयों की वर्तमान दशा का चित्रण करके इन्होंने देश के जन - मानस को झकझोर कर रख दिया । दिनकरजी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में हिन्दी साहित्य को उच्च कोटि की रचनाएँ दी हैं । इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
निबन्ध संग्रह - मिट्टी की ओर , अर्द्धनारीश्वर , रेती के फूल , उजली आग ।
संस्कृति - ग्रन्थ - संस्कृति के चार अध्याय , भारतीय संस्कृति की एकता ।
आलोचना - ग्रन्थ - शुद्ध कविता की खोज ।
काव्य - ग्रन्थ - रेणुका , हुँकार , सामधेनी , रूपवन्ती , कुरुक्षेत्र , रश्मिरथी , उर्वशी , परशुराम की प्रतीक्षा । दिनकरजी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है , जिसके दो रूप हैं ' संस्कृति के चार अध्याय ' जैसी गम्भीर विवेचनात्मक रचनाओं में दिनकरजी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है । यह भाषा अत्यन्त प्रांजल और प्रौढ़ है , किन्तु इसमें भी सुबोधता और स्पष्टता सर्वत्र विद्यमान है । इनकी भाषा का दूसरा रूप उर्दू - फारसी के शब्दों से युक्त है । कहीं - कहीं अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों और उर्दू - फारसी की शब्दावली का सम्मिलित प्रयोग बड़ा ही मोहक लगता है । दिनकरजी की भाषा में तद्भव और देशज शब्दों तथा मुहावरों और लोकोक्तियों के भी सहज - स्वाभाविक प्रयोग हुए हैं । इनकी भाषा वस्तुतः सहज , स्वाभाविक और व्यावहारिक भाषा है । इसमें प्रवाह , ओज , सुबोधता एवं स्पष्टता है , परन्तु कहीं - कहीं इनके वाक्य - विन्यास में शिथिलता के भी दर्शन हो जाते हैं । भाषा की भाँति दिनकरजी की शैली भी व्यावहारिक ही है । वह विषयानुरूप बदलती रही है । इनकी रचनाओं में शैली के प्रायः निम्नलिखित रूप मिलते हैं
विवेचनात्मक शैली - दिनकरजी ने शैली का यह रूप गहन - गम्भीर विषयों के विवेचन के समय अपनाया है । इनके विचारप्रधान निबन्धों में तथा संस्कृति के चार अध्याय ' में यही शैली दृष्टिगोचर होती है । इसकी भाषा परिष्कृत , किन्तु सुबोध है । समीक्षात्मक शैली - इस शैली का प्रयोग समीक्षात्मक कृतियों में हुआ है । ' शुद्ध कविता की खोज और मिट्टी की ओर ' संग्रह के समीक्षात्मक निबन्धों में इसके दर्शन होते हैं । इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ है , किन्तु क्लिष्ट नहीं है । गाम्भीर्य इस शैली की मुख्य विशेषता है ।
भावात्मक शैली - दिनकरजी महान् कवि थे । गद्य - रचनाओं में भी कहीं - कहीं इनका भावुक कवि - हृदय मुखर हो उठा है । ऐसे स्थलों पर इनकी शैली भावात्मक हो गई है । इस शैली में काव्यात्मक सरसता , आलंकारिकता , सौष्ठव और भाषागत लालित्य देखते ही बनता है ।
सूक्तिपरक शैली — दिनकरजी में जीवन के शाश्वत सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार करने और उन्हें कलात्मक अभिव्यक्ति देने की अद्भुत शक्ति थी । इसलिए वे अपनी गद्य - रचनाओं के बीच - बीच में सूक्ति - शैली में भी बात कहते चलते हैं । इन सूक्तियों में दिनकरजी का गहन चिन्तन और जीवन का व्यापक अनुभव दृष्टिगोचर होता है । इन शैलियों के अतिरिक्त दिनकरजी की रचनाओं में आत्मकथात्मक शैली ( आत्मपरक निबन्धों में ) , वार्तालाप शैली , उद्धरण शैली , उद्बोधन शैली आदि के दर्शन भी यत्र - तत्र हो जाते हैं । दिनकरजी समर्थ कवि ही नहीं , उत्कृष्ट गद्यकार भी थे । संस्कृति के चार अध्याय ' और ' शुद्ध कविता की खोज जैसी उच्चकोटि की गद्य - कृतियाँ इन्हें महान् चिन्तक और मनीषी गद्य - लेखक की कोटि में प्रतिष्ठित करती हैं । सरस्वती के इस अमर साधक ने अपने देश के प्रति असीम राष्ट्रीय भावना का परिचय दिया । राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित इनका साहित्य भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है । इनकी गणना विश्व के महान् साहित्यकारों में होती है ।
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